तीन दोषों (त्रिदोष) वात, पित्त एवं कफ के बारे में कुछ महत्वपूर्ण मान्यताएँ:
वात दोष अंतरिक्ष एवं वायु तत्व का एक सम्मिश्रण माना जाता
है। इसे सर्वाधिक शक्तिशाली दोष माना जाता है क्योंकि यह
बहुत मूलभूत शारीरिक प्रक्रियाएँ जैसे कि कोशिका विभाजन,
हृदय, श्वसन एवं मन को नियंत्रित करता है
। उदाहरणस्वरूप
देर रात तक रूकना, सूखा मेवा खाना या पिछले भोजन के पचने
के पहले भोजन करने से वात संतुलन बिगड़ सकता है
। मुख्य दोष वातयुक्त लोग
विशेष रूप से त्वचा, तंत्रिका संबंधी एवं मानसिक बीमारियों
के प्रति रोगप्रवण माने जाते हैं ।
पित्त दोष अग्नि तथा जल तत्वों को उपस्थापित करते हैंI कहा जाता है कि पित्त हार्मोनों एवं पाचन व्यवस्था को नियंत्रित करता है । जब पित्त संतुलन से बाहर हो जाता है तो कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं (जैसे कि वैमनस्य एवं ईर्ष्या) का अनुभव कर सकता है एवं उसका शारीरिक रोगलक्षण (जैसे कि भोजन के 2 या 3 घंटे के अंदर अम्ल्शूल) हो सकता है । उदाहरण के लिये,मसालेदार या खट्टा भोजन करने; क्रोध में होने, थके या भयभीत होने; या सूरज की धूप में अत्यधिक समय व्यतीत करने से पित्त में गड़बड़ हो सकता है । प्रबल रूप से पित्त संघटन वाले लोग हृदय की बीमारियों एवं गठिया रोगप्रवण होते हैं ।
कफ दोष जल एवं पृथ्वी तत्वों का सम्मिश्रण हैI माना जाता है कि कफ शक्ति एवं प्रतिरोधी क्षमता को बनाये रखता है एवं वृद्धि को नियसंत्रित करता है । कफ दोष में असंतुलन भोजन के तुरंत बाद मिचली उत्पन्न कर सकता हैI उदाहरण के लिये, दिन के समय सोने, अत्यधिक मीठा भोजन करने, भूख से अधिक भोजन करने एवं अत्यधिक नमक तथा जल के साथ भोजन तथा पेय पदार्थ खाने (विशेष रूप से बसंत ऋतु के दौरान) से कफ बिगड़ जाता है । कफ दोष की प्रबलता वाले लोग मधुमेह, पित्तशय की समस्याएँ, पेट के घाव एवं श्वसन संबंधी बीमारियों जैसे कि दमा के प्रति रोगप्रवण होते हैं ।
आयुर्वेद के द्वारा परिभाषित अनुक्रम स्वास्थ्य की
अवस्था है । इसका अस्तित्व तब
होता है जब पाचन अग्नि (जठराग्नि) एक संतुलित स्थिति में
होता है; शारीरिक शरीरद्रव (वात,पित्त एवं कफ) संतुलन में
होता है, तीन वर्ज्य पदार्थ (मूत्र, गुदा द्वारा उत्सर्जित
शारीरिक अवशिष्ट एवं पसीना)उत्पन्न होते हैं एवं सामान्य
रूप से उत्सर्जित होते हैं, सात शारीरिक ऊतक (रस, रक्त,
मांस, मद, अस्थि, मज्जा एवं शुक्रलारतव) सामान्य रूप से
कार्य करते हैं, एवं मन, इंद्रियाँ तथा चेतना एक-साथ मिलकर
कार्य करते हैं । जन इन
व्यवस्थाओं का संतुलन गड़बड़ हो जाता है तो अक्रम (रोग)
प्रक्रिया शुरू होती है ।पित्त दोष अग्नि तथा जल तत्वों को उपस्थापित करते हैंI कहा जाता है कि पित्त हार्मोनों एवं पाचन व्यवस्था को नियंत्रित करता है । जब पित्त संतुलन से बाहर हो जाता है तो कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं (जैसे कि वैमनस्य एवं ईर्ष्या) का अनुभव कर सकता है एवं उसका शारीरिक रोगलक्षण (जैसे कि भोजन के 2 या 3 घंटे के अंदर अम्ल्शूल) हो सकता है । उदाहरण के लिये,मसालेदार या खट्टा भोजन करने; क्रोध में होने, थके या भयभीत होने; या सूरज की धूप में अत्यधिक समय व्यतीत करने से पित्त में गड़बड़ हो सकता है । प्रबल रूप से पित्त संघटन वाले लोग हृदय की बीमारियों एवं गठिया रोगप्रवण होते हैं ।
कफ दोष जल एवं पृथ्वी तत्वों का सम्मिश्रण हैI माना जाता है कि कफ शक्ति एवं प्रतिरोधी क्षमता को बनाये रखता है एवं वृद्धि को नियसंत्रित करता है । कफ दोष में असंतुलन भोजन के तुरंत बाद मिचली उत्पन्न कर सकता हैI उदाहरण के लिये, दिन के समय सोने, अत्यधिक मीठा भोजन करने, भूख से अधिक भोजन करने एवं अत्यधिक नमक तथा जल के साथ भोजन तथा पेय पदार्थ खाने (विशेष रूप से बसंत ऋतु के दौरान) से कफ बिगड़ जाता है । कफ दोष की प्रबलता वाले लोग मधुमेह, पित्तशय की समस्याएँ, पेट के घाव एवं श्वसन संबंधी बीमारियों जैसे कि दमा के प्रति रोगप्रवण होते हैं ।
आंतरिक वातवरण वात, पित्त एवं कफ से निर्धारित होता है जो निरंतर बाह्य वातावरण के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं । गलत आहार, आदतें, जीवनशैली, असंगत भोजन का सम्मिश्रण (उदाहरण के लिये तरबूज एवं अनाज, या पकाये हुये शहद का सेवन आदि), मौसमी परिवर्तन, दमित भावनायें एवं तनाव के कारक वात, पित्त एवं कफ के संतुलन में परिवर्तन लाने के लिये एक-साथ या अलग-अलग कार्य करते हैं । कारणों की प्रकृति के अनुसार, वात, पित्त या कफ बिगाड़ या गड़बड़ी करते हैं जो जठराग्नि (जठरीय आग) को प्रभावित करता है एवं अम्म (जीवविष) उत्पन्न करता है ।
यह अम्म रक्त की प्रवाह में शामिल होता है एवं नलियों को अवरूद्ध करते हुए संपूर्ण शरीर में परिसंचरित होता है । रक्त में जीवविष के प्रतिधरण के फलस्वरूप विषरक्तता होती है । यह संचित विषक्तता एक बार अच्छी तरह स्थापित होने पर धीरे-धीरे प्राण (आवश्यक जीवन ऊर्जा), ओजस (प्रतिरोधी क्षमता), एवं तेजस (कॊशिकीय चयापचयी ऊर्जा) को प्रभावित करेगा जिससे रॊग होगाI शरीर से जीवविष को निकालना प्रकृति का प्रयास हो सकता है । प्रत्येक तथाकथित रोग अम्म विषाक्तता का संकट है । बिगड़े हुये दोषों के कारण अम्म सभी रोगों का मूलभूत आंतरिक कारण है । स्वास्थ्य एवं रोगों से संबंध रखने वाली प्रमुख मान्यताएँ, लोगों के बीच संबंधों के बारे में धारणाएँ, उनके स्वास्थ्य, एवं ब्रह्माण्ड यह निर्धारित करते हैं कि किस तरह आयुर्वेदिक चिकित्सक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली समस्याओं के संबंध में सोचते हैंI
त्रिफला एक ऐसी चमत्कारी औषधि है जो कफ, पित्त व वात तीनो को सम रखती है.
आदरणीय व्यवस्थापक जी (admin), आपसे निवेदन है की कृपया आप एक लेख इस विषय पर भी लिखे की वात, पित्त , कफ के रोगों को कैसे पहचाना जाये , मतलब अगर वात है तोह उसमे यह यह समस्या हो सकती है आदि आदि ...और एक लेख .... दो या अधिक औशादी का योग कितना असर करता है जैसे गेहू के जवारे (पाउडर )पानी में तो अच्छा है लेकिन खून की समस्या वालो के लिए अनार के रस के साथ ज्यादा गुणकारी हो जाता है .
ReplyDeleteधन्यवाद् और आभार