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आयुर्वेद

आयुर्वेद भारतीय पारम्परिक चिकित्सा विज्ञान का एक रूप है जिसका उद्भव भारतवर्ष में क़रीब ५००० वर्ष पूर्व हुआ. यह शब्द ‘आयु:’ अर्थात् ‘जीवन’ और ‘वेद’ अर्थात् ‘ज्ञान’, के संगम से बना है अत: इसे ‘जीवन का विज्ञान’ कहा जाता है. स्वस्थ जीवन के उपायों के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आत्मिक अनुरूपता से जुड़े चिकित्सकीय साधनों का भी विशेष उल्लेख आयुर्वेद में किया गया है. आयुर्वेद के जन्म से सम्बन्धित कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलते किन्तु इसका आंशिक भाग अथर्ववेद  में पाया गया है अत: यह माना जाता है कि यह विद्या वेदों के समकालीन है.
कहते हैं कि यह विज्ञान स्वयं सृष्टि के जनक भगवान ब्रह्मा द्वारा रचा गया था. बाद में यह विद्या उन्होंने दक्ष प्रजापति को सिखायी और दक्ष प्रजापति से यह देवों के वैद्य अश्विनीकुमारों बंधुओं के पास गयी. तदोपरांत अश्विनीकुमारों ने इस विद्या को देवराज इंद्र के समक्ष प्रस्तुत किया. तीन महान चिकित्सक – आचार्य भारद्वाज, आचार्य कश्यप तथा आचार्य दिवोदास धन्वंतरि (चिकित्सा पद्धिति के देव), स्वयं देवराज इंद्र के शिष्य थे. इनमें से आचार्य भारद्वाज के एक कुशाग्र शिष्य हुए आचार्य अग्निवेश. सर्वप्रथम इन्होनें ही आयुर्वेद के मुख्य लिखित रूप की रचना की, जिसे आगे चल कर इनके शिष्य आचार्य चरक ने संशोधित कर पुन: प्रस्तुत किया. इस संशोधित संस्करण को आज ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना जाता है. इसके अतिरिक्त आचार्य कश्यप ने बाल चिकित्सा के ऊपर एक ग्रन्थ लिखा जो आज आंशिक रूप में ‘कश्यप संहिता’ के नाम से उपलब्ध है.
आचार्य धन्वंतरि के शिष्य हुये आचार्य सुश्रुत, जिन्होनें गुरू से पृथक होने के पश्चात ‘सुश्रुत संहिता’ की रचना की जिसे शल्य चिकित्सा, नेत्र-नासिका-कंठ चिकित्सा तथा नेत्र-विज्ञान का महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है. ‘चरक संहिता’, ‘सुश्रुत संहिता’ तथा ‘वाग्भट्ट’ द्वारा लिखित ‘अष्टांग हृदयम’, इन तीनों प्राचीन पुस्तकों को सम्मिलित रूप से ‘बृहत्-त्रयी’ के नाम से जाना जाता है और यह वर्तमान में आयुर्वेदिक विद्या का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकलन है.
इसी प्रकार विभिन्न रोगों की पहचान, विभिन्न जड़ी-बूटियों, खनिजों, क्वाथ, चूर्ण, आसव, अरिष्ट इत्यादि के संविन्यास से जुड़ी सभी जानकारियाँ क्रमश: ‘माधव निदान’, ‘भव प्रकाश निघन्तु’ और ‘श्रृंगधर संहिता’ में मिलती हैं जिन्हें संयुक्त रूप से ‘लघु्त्-त्रयी’ के नाम से जाना जाता है.
माना जाता है कि वैदिक काल से अब तक आयुर्वेद के क्षेत्र में निरंतर विकास हुआ है. बौद्ध काल में नागार्जुन, सुरानंद, नागबोधि, यशोधन, नित्यनाथ, गोविंद, अनंतदेव एवं वाग्भट्ट आदि महान वैद्य हुए जिन्होनें आयुर्वेद के क्षेत्र में विभिन्न नये एवं सफल प्रयोग किये. इस काल में आयुर्वेद ने प्रगति का चरम देखा. इसी कारण बौद्ध काल को आयुर्वेद का स्वर्णयुग भी माना जाता रहा है.
समय के आधुनिकीकरण के साथ आयुर्वेद का प्रयोग भले ही कम हुआ किंतु भारत ने अपनी इस विद्या को मिटने नहीं दिया. और आज एक बार पुन: आयुर्वेद पश्चिमी चिकित्सा शैली को चुनौती दे रहा है. वस्तुत: उद्देश्य किसी एक विद्या का आधिपत्य स्थापित करना नहीं है, उद्देश्य है विश्व में आरोग्य की स्थापना, साधारण जन मानस के लिये असाध्य रोगों की भी सुलभ और अल्पव्ययी चिकित्सा पद्धिति उपलब्ध कराना.

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