गठिया और संधि के रोगों की महा औषधि-संधिशूलहर पाक
संधिशूलहर पाक :-
लाभ :उत्तम वायुनाशक व हड्डियों को मजबूत करनेवाली मेथी, दोषों का पाचन करनेवाली सौंठ व जठराग्नि को प्रदीप्त करनेवाले द्रव्यों से बना यह पाक जोड़ों के दर्द, गृध्रसी (सायटिका), गठिया, गर्दन का दर्द (सर्वायकल स्पोंडीलोसिस), कमरदर्द तथा वायु के कारण होनेवाली हाथ-पैरों की ऐंठन, सुन्नता, जकडन आदि में अतीव गुणकारी है | सर्दियों में 40-60 दिन तक इसका सेवन कर सकते है | बल व पुष्टि के लिए निरोगी व्यक्ति भी इसका लाभ ले सकते है | प्रसूता माताओं के लिए भी यह खूब लाभदायी है | इससे गर्भाशय की शुद्धि व दूध में वृद्धि होती है |
सामग्री : मेथी का आटा व सौंठ का चूर्ण प्रत्येक 50 ग्राम, देशी घी 150 ग्राम. मिश्री 650 ग्राम | प्रक्षेप द्रव्य – पीपर, सौंठ, पीपरामूल, चित्रक, जीरा, धनिया, अजवायन, कलौंजी, सौंफ, जायफल, दालचीनी, तेजपत्र एवं नागरमोथ प्रत्येक का चूर्ण 10-10 ग्राम व कलि मिर्च का चूर्ण 15 ग्राम |
विधि : मिश्री की एक तार की चाशनी बना लें | सौंठ को घी में धीमी आँच पर सेंक लें | जब उसका रंग सुनहरा लाल हो जाय, तब मेथी का आटा व चाशनी मिलाकर अच्छे से हिलायें | नीचे उतारकर प्रक्षेप द्रव्य मिला दे |
सेवन-विधि : 15-20 ग्राम पाक सुबह गुनगुने पानी के साथ ले |
सूचना : जोड़ों के दर्द में दही, टमाटर आदि खट्टे पदार्थ, आलू, राजमा, उडद, मटर व तले हए, पचने में भारी पदार्थ न खाये |
महौषधि - सौंठ
अदरक व सौंठ हर मौसम में, हर घर के रसोई घर में प्रायः रहते ही हैं। इनका उपयोग घरेलू इलाज में किया जा सकता है। सौंठ दुनिया की सर्वश्रेष्ठवातनाशक औषधि है. 'जिंजर टिंक्चर' का प्रयोग एक प्रकार के मादक द्रव्य के नाते नहीं, वरन् उसकी वात नाशक क्षमता के कारण ही किया जाता है । यह शरीर संस्थान में समत्व स्थापित कर जीवनी शक्ति और रोग प्रतिरोधक सामर्थ्य को बढ़ाती है । हृदय श्वांस संस्थान से लेकर वात नाड़ी संस्थान तक यह समस्त अवयवों की विकृति को मिटाकर अव्यवस्था को दूर करती है । अरुचि, उल्टी की इच्छा होने पर, अग्नि मंदता, अजीर्ण एवं पुराने कब्ज में यह तुरंत लाभ पहुँचाती है । यह हृदयोत्तेजक है । जो ब्लड प्रेशर ठीक करती है तथा खाँसी, श्वांस रोग, हिचकी में भी आराम देती है । सौंठ में प्रोटिथीलिट इन्जाइम्स की प्रचुरता है । प्रोटिथीलिटिक एन्जाइम क्रिया के कारण ही यह कफ मिटाती है तथा पाचन संस्थान में शूल निवारण दीपन की भूमिका निभाती है । जीवाणुओं के ऊपर भी इसी क्रिया द्वारा तथा जीवनी शक्ति बढ़ाकर यह रक्त शोधन करती है ।
बहुधा सौंठ तैयार करने से पूर्व अदरख को छीलकर सुखा लिया जाता है । परंतु उस छीलन में सर्वाधिक उपयोगी तेल (इसेन्शयल ऑइल) होता है, छिली सौंठ इसी कारण औषधीय गुणवत्ता की दृष्टि से घटिया मानी जाती है । वेल्थ ऑफ इण्डिया ग्रंथ के विद्वान् लेखक गणों का अभिमत है कि अदरक को स्वाभाविक रूप में सुखाकर ही सौंठ की तरह प्रयुक्त करना चाहिए । तेज धूप में सुखाई गई अदरक उस सौंठ से अधिक गुणकारी है जो बंद स्थान में कृत्रिम गर्मी से सुखाकर तैयार की जाती है । कई बार सौंठ को रसायनों से सम्मिश्रित कर सुन्दर बनाने का प्रयास किया जाता है । यह सौंठ दीखने में तो सुन्दर दिखाई देती है, पर गुणों की दृष्टि से लाभकर सिद्ध नहीं होती है । सुखाए गए कंद को 1 वर्ष से अधिक प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए । यदि इस बीच नमी आदि लग जाती है तो औषधि अपने गुण खो देती है । गर्म प्रकृति वाले लोगो के लिए सौंठ अनुकूल नहीं है.
- सर्दियों में हर तीसरे दिन एक कप गर्म पानी में २ चुटकी पिसी सौंठ घोलकर पीने से मौसम का विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता. बदलते मौसम की वजह से अगर खांसी, जुकाम या बुखार हो जाये तो दिन में 3-4 बार पिसी सौंठ को गुनगुने पानी में घोलकर पीने से किसी दवाई या अन्य इलाज की आवश्यकता नहीं रहती.
- भोजन से पहले अदरक को चिप्स की तरह बारीक कतर लें। इन चिप्स पर पिसा काला नमक बुरक कर खूब चबा-चबाकर खा लें फिर भोजन करें। इससे अपच दूर होती है, पेट हलका रहता है और भूख खुलती है।
- अदरक का एक छोटा टुकड़ा छीले बिना (छिलकेसहित) आग में गर्म करके छिलका उतार दें। इसे मुँह में रख कर आहिस्ता-आहिस्ता चबाते चूसते रहने से अन्दर जमा और रुका हुआ बलगम निकल जाता है और सर्दी-खाँसी ठीक हो जाती है।
- सौंठ को पानी के साथ घिसकर इसके लेप में थोड़ा सा पुराना गुड़ और 5-6 बूँद घी मिलाकर थोड़ा गर्म कर लें। बच्चे को लगने वाले दस्त इससे ठीक हो जाते हैं। ज्यादा दस्त लग रहें हों तो इसमें जायफल घिसकर मिला लें।
- अदरक का टुकड़ा छिलका हटाकर मुँह में रखकर चबाते-चूसते रहें तो लगातार चलने वाली हिचकी बन्द हो जाती है।
- अपच की शिकायत है तो हरड़ के चूर्ण को सौंठ के चूर्ण के साथ लें। खाना खाने के पहले इस चूर्ण का सेवन करने से भूख खुल कर लगती है। इसे हरड, गुड़ या सेंधा नमक के साथ खाने से पाचन शक्ति बढ़ती है।
- बुढ़ापे में पाचन क्रिया कमजोर पड़ने लगती है. वात और कफ का प्रकोप बढ़ने लगता है. हाथो पैरो तथा शारीर के समस्त जोड़ो में दर्द रहने लगता है. सौंठ मिला हुआ दूध पीने से बुढ़ापे के रोगों से राहत मिलती है.
- सौंठ श्वास रोग में उपकारी है। इसका काढा बनाकर पीना चाहिये।
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गैस होने पर पिसी सौंठ में स्वादानुसार नमक मिलकर गुनगुने पानी के साथ लेने पर आराम मिलता है.
पुदीना - घर-घर में पाया जाने वाला औषधीय पौधा
गर्मी में पुदीना खाने का टेस्ट बढ़ाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि ये एक बहुत अच्छी औषधि भी है साथ ही इसका सबसे बड़ा गुण यह है कि पुदीने का पौधा कहीं भी किसी भी जमीन, यहां तक कि गमले में भी आसानी से उग जाता है। यह गर्मी झेलने की शक्ति रखता है। इसे किसी भी उर्वरक की आवश्यकता नहीं पडती है। यह भारत में सर्वत्र लगाया जाता है। थोड़ी सी मिट्टी और पानी इसके विकास के लिए पर्याप्त है। पुदीना को किसी भी समय उगाया जा सकता है। इसकी पत्तियों को ताजा तथा सुखाकर प्रयोग में लाया जा सकता है।
ताजा हरा पुदीना अधिक गुणकारी व विटामिन 'ए' से भरपूर होता है। पुदीने का अर्क या सत विशेष तौर पर औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। पुदीना कटु, उष्ण वीर्य, दीपन, रोचक, पाचक तथा कफ, वायु, उल्टी, पेटदर्द, आफरा और कृमि का नाशक है। इसका वातनाशक धर्म बहुत मूल्यवान है। यूनानी मत के अनुसार पुदीना आमाशय को शक्ति देने वाला, पसीना लाने में सहायक बताया गया है। गर्भाशय को उत्तेजित करनेवाला गुण भी इसमें होता है। यह मासिक धर्म के अवरोध को दूर कर देता है। मासिक धर्म समय पर न आने पर पुदीने की सूखी पत्तियों के चूर्ण को शहद के साथ समान मात्रा में मिलाकर दिन में दो-तीन बार नियमित रूप से सेवन करने पर लाभ मिलता है।
पुदीने के लाभ :
मुंहासे दूर करता है
- हरा पुदीना पीसकर उसमें नींबू के रस की दो-तीन बूँद डालकर चेहरे पर लेप करें। कुछ देर लगा रहने दें। बाद में चेहरा ठंडे पानी से धो डालें।
- कुछ दिनों के प्रयोग से मुँहासे दूर हो जाएँगे तथा चेहरा निखर जाएगा। पुदीने की पत्तियों को पीस कर लेप करने से, भाप लेने से, मुहांसे, चेहरे की झाइयों और दागों में लाभ होता है।
- हरे -पुदीने की 20-25 पत्तियां, मिश्री व सौंफ 10-10 ग्राम और कालीमिर्च 2-3 दाने इन सबको पीस लें और सूती, साफ कपड़े में रखकर निचोड़ लें। इस रस की एक चम्मच मात्रा लेकर एक कप कुनकुने पानी में डालकर पीने से हिचकी बंद हो जाती है।
श्वांस संबंधी परेशानियों में रामबाण
- एक चम्मच पुदीने का रस, दो चम्मच सिरका और एक चम्मच गाजर का रस एकसाथ मिलाकर पीने से श्वास संबंधी विकार दूर होते हैं।
-पुदीने में फेफड़ों में जमा हुए बलगम को छांट-छांट कर शरीर से बाहर कर देने का विलक्षण गुण पाया जाता है। इसी कारण कफ से होने वाली खांसी, हिचकी एवं दमा को यह दूर करता है। पुदीने को सुखाकर, बारीक कपड़छन चूर्ण तैयार कर लें। यह चूर्ण एक चाय चम्मच भर मात्रा में दिन में दो बार पानी के साथ सेवन करें। पुदीने का अर्क इन रोगों पर विशेष प्रभावी है।
कैंसर में भी है उपयोगी
- एक रिसर्च से पता चला है कि यह कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी में लाभकारी है ।
पुदीने के कुछ अन्य अनुप्रयोग
- हैजे में अजवायन का सत्व एवं पुदीने का अर्क देते रहने से रोगी शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है। पानी की कमी (डीहाइड्रेशन) की घातक अवस्था से बचाने के लिये भी पुदीना लाभकारी है। उल्टी-दस्त, हैजा हो तो आधा कप पुदीना का रस हर दो घंटे से रोगी को पिलाएँ।- अजीर्ण होने पर पुदीने का रस पानी में मिलाकर पीने से लाभ होता है।
- पेटदर्द और अरुचि में 3 ग्राम पुदीने के रस में जीरा, हींग, कालीमिर्च, कुछ नमक डालकर गर्म करके पीने से लाभ होता है।
-पुदीने और सौंठ का क्वाथ बनाकर पीने से सर्दी के कारण होने वाले बुखार में राहत मिलती है। -
- प्रसव के समय पुदीने का रस पिलाने से प्रसव आसानी से हो जाता है।
- बिच्छू या बर्रे के दंश स्थान पर पुदीने का अर्क लगाने से यह विष को खींच लेता है और दर्द को भी शांत करता है।
-दस ग्राम पुदीना व बीस ग्राम गुड़ दो सौ ग्राम पानी में उबालकर पिलाने से बार-बार उछलने वाली पित्ती ठीक हो जाती है।
-पुदीने को पानी में उबालकर थोड़ी चीनी मिलाकर उसे गर्म-गर्म चाय की तरह पीने से बुखार दूर होकर बुखार के कारण आई निर्बलता भी दूर होती है।
- तलवे में गर्मी के कारण आग पड़ने पर पुदीने का रस लगाना लाभकारी होता है।
- पुदीने का सत निकालकर साबुन के पानी में घोलकर सिर पर डालें। 15-20 मिनट तक सिर में लगा रहने दें। बाद में सिर को जल से धो लें। दो-तीन बार इस प्रयोग को करने से बालों में पड़ गई जुएँ मर जाएँगी।
- पुदीने के ताजे पत्तों को मसलकर मूर्छित व्यक्ति को सुंघाने से मूर्छा दूर होती है।
-पुदीने और सौंठ का क्वाथ बनाकर पीने से सर्दी के कारण होने वाले बुखार में राहत मिलती है।
- पेट में अचानक दर्द उठता हो तो अदरक और पुदीने के रस में थोड़ा सा सेंधा नमक मिलाकर सेवन करे।
-अधिक गर्मी या उमस के मौसम में जी मिचलाए तो एक चम्मच सूखे पुदीने की पत्तियों का चूर्ण और आधी छोटी इलायची के चूर्ण को एक गिलास पानी में उबालकर पीने से लाभ होता है।
- नकसीर आने पर प्याज और पुदीने का रस मिलाकर नाक में डाल देने से नकसीर के रोगियों को बहुत लाभ होता है।
-बुखार से पीडि़त को यदि बार-बार प्यास लग रही हो तो, पुदीने का रस तात्कालिक रूप से रोगी को पिलाएं। इससे प्यास तो बुझेगी ही, साथ ही शारीरिक गरमी से भी मुक्ति मिलेगी।
-पुदीना, काली मिर्च, हींग, सेंधा नमक, मुनक्का, जीरा, छुहारा सबको मिलाकर चटनी पीस लें। यह चटनी पेट के कई रोगों से बचाव करती है व खाने में भी स्वादिष्ट होती है। भूख न लगने या खाने से अरुचि होने पर भी यह चटनी भूख को खोलती है।
-यदि आपको टॉंसिल की शिकायत रहती है, जिनमें अक्सर सूजन हो जाती हो तो ऐसे में पुदीने के रस में सादा पानी मिलाकर गरारा करना चाहिए।
-गर्मियों में पुदीने की चटनी तथा प्याज का नित्य सेवन करने से लू-लगने की आशंका से मुक्ति मिल जाती है।
- सलाद में इसका उपयोग स्वास्थ्यवर्धक है। प्रतिदिन इसकी पत्ती चबाई जाए तो दुत क्षय, मसूडों से रक्त निकलना, पायरिया आदि रोग कम हो जाते हैं। यह एंटीसेप्टिक की तरह काम करता है और दांतों तथा मसूडों को जरूरी पोषक तत्व पहुंचाता है। एक गिलास पानी में पुदीने की चार पत्तियों को उबालें। ठंडा होने पर फ्रिज में रख दें। इस पानी से कुल्ला करने पर मुंह की दुर्गंध दूर हो जाती है।
- एक टब में पानी भरकर उसमें कुछ बूंद पुदीने का तेल डालकर यदि उसमें पैर रखे जाएं तो थकान से राहत मिलती है और बिवाइयों के लिए बहुत लाभकारी है।पानी में नींबू का रस, पुदीना और काला नमक मिलाकर पीने से मलेरिया के बुखार में राहत मिलती है। इसके अलावा हकलाहट दूर करने के लिए पुदीने की पत्तियों में काली मिर्च पीस लें तथा सुबह शाम एक चम्मच सेवन करें।पुदीने की चाय में दो चुटकी नमक मिलाकर पीने से खांसी में लाभ मिलता है। हैजे में पुदीना, प्याज का रस, नींबू का रस समान मात्रा में मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
- हरे पुदीने की 20-25 पत्तियां, मिश्री व सौंफ 10-10 ग्राम और कालीमिर्च 2-3 दाने इन सबको पीस लें और सूती, साफ कपड़े में रखकर निचोड़ लें। इस रस की एक चम्मच मात्रा लेकर एक कप कुनकुने पानी में डालकर पीने से हिचकी बंद हो जाती है। इतना ही नहीं अधिक गर्मी या उमस के मौसम में जी मिचलाए तो एक चम्मच सूखे पुदीने की पत्तियों का चूर्ण और आधी छोटी इलायची के चूर्ण को एक गिलास पानी में उबालकर पीने से लाभ होता है।
- पुदीने का ताजा रस शहद के साथ सेवन करने से ज्वर दूर हो जाता है तथा न्यूमोनिया से होने वाले विकार भी नष्ट हो जाते हैं। पेट में अचानक दर्द उठता हो तो अदरक और पुदीने के रस में थोड़ा सा सेंधा नमक मिलाकर सेवन करें। नकसीर आने पर प्याज और पुदीने का रस मिलाकर नाक में डाल देने से नकसीर के रोगियों को बहुत लाभ होता है।
अरबी (घुइयां) के गुण
जलना- जले हुए स्थान पर अरबी पीसकर लगाने से फेफोले नही पड़ते और जलन भी समाप्त हो जाती है।
सूखी खासी- सूखी खासी में अरबी की सब्जी खाने से कफ पतला होकर बाहर निकल जाता है।
हृदय रोग- बड़ी इलायची, काली मिर्च, काला जीरा, अदरक आदि से तैयार अरबी की सब्जी कुछ दिनों तक नियमित सेवन करने रहने से हृदय दौर्बय, रक्ताल्पाता (खून की कमी) व अन्य हृदय रोग जाते रहते है।
बर्र या ततैया का काटना- दंशित स्थान पर अरबी काटकर तथा घिसकर लगा देनी चाहिए। इससे विष कम हो जायेगा और सुजन भी कम हो जायेगी।
वायु का गोला- अरबी के पौधे के डन्ठल को पत्तों सहित वाष्प (भाप) पर उबालकर निचोंड लें और उसमें ताजा घी मिला 3-4 दिन तक पिलाते रहने से वात गुल्म में लाभ होता है।
गंजापन- अरबी (घुईया काली) के रस का कुछ दिनों तक नियमित सिर पर मर्दन करने से केशों का गिरना रूक जाता है। तथा नयें केश भी उग आतें है।
रक्तार्श- अरबी का रस कुछ दिनों तक पिलाना हितकर रहता है।
अरबी ठंडी और तर होती है। गुर्दे के रोग अरबी खाने से दूर होते हैं। उच्च रक्त-चाप अरबी खाने से कम होता है। त्वचा का सूखापन और झुर्रियाँ भी अरबी दूर करती है। अरबी की सब्जी में दालचीनी, गरम मसाला और लौंगें डालें। जिनके गैस बनती हो, गठिया और खाँसी हो उनके लिये अरबी हानिकारक है। ह्रदय के रोगी को अरबी की सब्जी एक बार प्रतिदिन खाने से ह्रदय रोग में लाभ होता है।
त्रिदोष: कफ, पित्त और वात
तीन दोषों (त्रिदोष) वात, पित्त एवं कफ के बारे में कुछ महत्वपूर्ण मान्यताएँ:
वात दोष अंतरिक्ष एवं वायु तत्व का एक सम्मिश्रण माना जाता
है। इसे सर्वाधिक शक्तिशाली दोष माना जाता है क्योंकि यह
बहुत मूलभूत शारीरिक प्रक्रियाएँ जैसे कि कोशिका विभाजन,
हृदय, श्वसन एवं मन को नियंत्रित करता है
। उदाहरणस्वरूप
देर रात तक रूकना, सूखा मेवा खाना या पिछले भोजन के पचने
के पहले भोजन करने से वात संतुलन बिगड़ सकता है
। मुख्य दोष वातयुक्त लोग
विशेष रूप से त्वचा, तंत्रिका संबंधी एवं मानसिक बीमारियों
के प्रति रोगप्रवण माने जाते हैं ।
पित्त दोष अग्नि तथा जल तत्वों को उपस्थापित करते हैंI कहा जाता है कि पित्त हार्मोनों एवं पाचन व्यवस्था को नियंत्रित करता है । जब पित्त संतुलन से बाहर हो जाता है तो कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं (जैसे कि वैमनस्य एवं ईर्ष्या) का अनुभव कर सकता है एवं उसका शारीरिक रोगलक्षण (जैसे कि भोजन के 2 या 3 घंटे के अंदर अम्ल्शूल) हो सकता है । उदाहरण के लिये,मसालेदार या खट्टा भोजन करने; क्रोध में होने, थके या भयभीत होने; या सूरज की धूप में अत्यधिक समय व्यतीत करने से पित्त में गड़बड़ हो सकता है । प्रबल रूप से पित्त संघटन वाले लोग हृदय की बीमारियों एवं गठिया रोगप्रवण होते हैं ।
कफ दोष जल एवं पृथ्वी तत्वों का सम्मिश्रण हैI माना जाता है कि कफ शक्ति एवं प्रतिरोधी क्षमता को बनाये रखता है एवं वृद्धि को नियसंत्रित करता है । कफ दोष में असंतुलन भोजन के तुरंत बाद मिचली उत्पन्न कर सकता हैI उदाहरण के लिये, दिन के समय सोने, अत्यधिक मीठा भोजन करने, भूख से अधिक भोजन करने एवं अत्यधिक नमक तथा जल के साथ भोजन तथा पेय पदार्थ खाने (विशेष रूप से बसंत ऋतु के दौरान) से कफ बिगड़ जाता है । कफ दोष की प्रबलता वाले लोग मधुमेह, पित्तशय की समस्याएँ, पेट के घाव एवं श्वसन संबंधी बीमारियों जैसे कि दमा के प्रति रोगप्रवण होते हैं ।
आयुर्वेद के द्वारा परिभाषित अनुक्रम स्वास्थ्य की
अवस्था है । इसका अस्तित्व तब
होता है जब पाचन अग्नि (जठराग्नि) एक संतुलित स्थिति में
होता है; शारीरिक शरीरद्रव (वात,पित्त एवं कफ) संतुलन में
होता है, तीन वर्ज्य पदार्थ (मूत्र, गुदा द्वारा उत्सर्जित
शारीरिक अवशिष्ट एवं पसीना)उत्पन्न होते हैं एवं सामान्य
रूप से उत्सर्जित होते हैं, सात शारीरिक ऊतक (रस, रक्त,
मांस, मद, अस्थि, मज्जा एवं शुक्रलारतव) सामान्य रूप से
कार्य करते हैं, एवं मन, इंद्रियाँ तथा चेतना एक-साथ मिलकर
कार्य करते हैं । जन इन
व्यवस्थाओं का संतुलन गड़बड़ हो जाता है तो अक्रम (रोग)
प्रक्रिया शुरू होती है ।पित्त दोष अग्नि तथा जल तत्वों को उपस्थापित करते हैंI कहा जाता है कि पित्त हार्मोनों एवं पाचन व्यवस्था को नियंत्रित करता है । जब पित्त संतुलन से बाहर हो जाता है तो कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं (जैसे कि वैमनस्य एवं ईर्ष्या) का अनुभव कर सकता है एवं उसका शारीरिक रोगलक्षण (जैसे कि भोजन के 2 या 3 घंटे के अंदर अम्ल्शूल) हो सकता है । उदाहरण के लिये,मसालेदार या खट्टा भोजन करने; क्रोध में होने, थके या भयभीत होने; या सूरज की धूप में अत्यधिक समय व्यतीत करने से पित्त में गड़बड़ हो सकता है । प्रबल रूप से पित्त संघटन वाले लोग हृदय की बीमारियों एवं गठिया रोगप्रवण होते हैं ।
कफ दोष जल एवं पृथ्वी तत्वों का सम्मिश्रण हैI माना जाता है कि कफ शक्ति एवं प्रतिरोधी क्षमता को बनाये रखता है एवं वृद्धि को नियसंत्रित करता है । कफ दोष में असंतुलन भोजन के तुरंत बाद मिचली उत्पन्न कर सकता हैI उदाहरण के लिये, दिन के समय सोने, अत्यधिक मीठा भोजन करने, भूख से अधिक भोजन करने एवं अत्यधिक नमक तथा जल के साथ भोजन तथा पेय पदार्थ खाने (विशेष रूप से बसंत ऋतु के दौरान) से कफ बिगड़ जाता है । कफ दोष की प्रबलता वाले लोग मधुमेह, पित्तशय की समस्याएँ, पेट के घाव एवं श्वसन संबंधी बीमारियों जैसे कि दमा के प्रति रोगप्रवण होते हैं ।
आंतरिक वातवरण वात, पित्त एवं कफ से निर्धारित होता है जो निरंतर बाह्य वातावरण के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं । गलत आहार, आदतें, जीवनशैली, असंगत भोजन का सम्मिश्रण (उदाहरण के लिये तरबूज एवं अनाज, या पकाये हुये शहद का सेवन आदि), मौसमी परिवर्तन, दमित भावनायें एवं तनाव के कारक वात, पित्त एवं कफ के संतुलन में परिवर्तन लाने के लिये एक-साथ या अलग-अलग कार्य करते हैं । कारणों की प्रकृति के अनुसार, वात, पित्त या कफ बिगाड़ या गड़बड़ी करते हैं जो जठराग्नि (जठरीय आग) को प्रभावित करता है एवं अम्म (जीवविष) उत्पन्न करता है ।
यह अम्म रक्त की प्रवाह में शामिल होता है एवं नलियों को अवरूद्ध करते हुए संपूर्ण शरीर में परिसंचरित होता है । रक्त में जीवविष के प्रतिधरण के फलस्वरूप विषरक्तता होती है । यह संचित विषक्तता एक बार अच्छी तरह स्थापित होने पर धीरे-धीरे प्राण (आवश्यक जीवन ऊर्जा), ओजस (प्रतिरोधी क्षमता), एवं तेजस (कॊशिकीय चयापचयी ऊर्जा) को प्रभावित करेगा जिससे रॊग होगाI शरीर से जीवविष को निकालना प्रकृति का प्रयास हो सकता है । प्रत्येक तथाकथित रोग अम्म विषाक्तता का संकट है । बिगड़े हुये दोषों के कारण अम्म सभी रोगों का मूलभूत आंतरिक कारण है । स्वास्थ्य एवं रोगों से संबंध रखने वाली प्रमुख मान्यताएँ, लोगों के बीच संबंधों के बारे में धारणाएँ, उनके स्वास्थ्य, एवं ब्रह्माण्ड यह निर्धारित करते हैं कि किस तरह आयुर्वेदिक चिकित्सक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली समस्याओं के संबंध में सोचते हैंI
त्रिफला एक ऐसी चमत्कारी औषधि है जो कफ, पित्त व वात तीनो को सम रखती है.
आयुर्वेद
आयुर्वेद भारतीय पारम्परिक चिकित्सा विज्ञान का एक रूप है जिसका उद्भव
भारतवर्ष में क़रीब ५००० वर्ष पूर्व हुआ. यह शब्द ‘आयु:’ अर्थात् ‘जीवन’ और
‘वेद’ अर्थात् ‘ज्ञान’, के संगम से बना है अत: इसे ‘जीवन का विज्ञान’ कहा
जाता है. स्वस्थ जीवन के उपायों के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा
आत्मिक अनुरूपता से जुड़े चिकित्सकीय साधनों का भी विशेष उल्लेख आयुर्वेद
में किया गया है. आयुर्वेद के जन्म से सम्बन्धित कोई लिखित प्रमाण नहीं
मिलते किन्तु इसका आंशिक भाग अथर्ववेद में पाया गया है अत: यह माना जाता
है कि यह विद्या वेदों के समकालीन है.
कहते हैं कि यह विज्ञान स्वयं सृष्टि के जनक भगवान ब्रह्मा द्वारा रचा गया था. बाद में यह विद्या उन्होंने दक्ष प्रजापति को सिखायी और दक्ष प्रजापति से यह देवों के वैद्य अश्विनीकुमारों बंधुओं के पास गयी. तदोपरांत अश्विनीकुमारों ने इस विद्या को देवराज इंद्र के समक्ष प्रस्तुत किया. तीन महान चिकित्सक – आचार्य भारद्वाज, आचार्य कश्यप तथा आचार्य दिवोदास धन्वंतरि (चिकित्सा पद्धिति के देव), स्वयं देवराज इंद्र के शिष्य थे. इनमें से आचार्य भारद्वाज के एक कुशाग्र शिष्य हुए आचार्य अग्निवेश. सर्वप्रथम इन्होनें ही आयुर्वेद के मुख्य लिखित रूप की रचना की, जिसे आगे चल कर इनके शिष्य आचार्य चरक ने संशोधित कर पुन: प्रस्तुत किया. इस संशोधित संस्करण को आज ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना जाता है. इसके अतिरिक्त आचार्य कश्यप ने बाल चिकित्सा के ऊपर एक ग्रन्थ लिखा जो आज आंशिक रूप में ‘कश्यप संहिता’ के नाम से उपलब्ध है.
आचार्य धन्वंतरि के शिष्य हुये आचार्य सुश्रुत, जिन्होनें गुरू से पृथक होने के पश्चात ‘सुश्रुत संहिता’ की रचना की जिसे शल्य चिकित्सा, नेत्र-नासिका-कंठ चिकित्सा तथा नेत्र-विज्ञान का महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है. ‘चरक संहिता’, ‘सुश्रुत संहिता’ तथा ‘वाग्भट्ट’ द्वारा लिखित ‘अष्टांग हृदयम’, इन तीनों प्राचीन पुस्तकों को सम्मिलित रूप से ‘बृहत्-त्रयी’ के नाम से जाना जाता है और यह वर्तमान में आयुर्वेदिक विद्या का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकलन है.
इसी प्रकार विभिन्न रोगों की पहचान, विभिन्न जड़ी-बूटियों, खनिजों, क्वाथ, चूर्ण, आसव, अरिष्ट इत्यादि के संविन्यास से जुड़ी सभी जानकारियाँ क्रमश: ‘माधव निदान’, ‘भव प्रकाश निघन्तु’ और ‘श्रृंगधर संहिता’ में मिलती हैं जिन्हें संयुक्त रूप से ‘लघु्त्-त्रयी’ के नाम से जाना जाता है.
माना जाता है कि वैदिक काल से अब तक आयुर्वेद के क्षेत्र में निरंतर विकास हुआ है. बौद्ध काल में नागार्जुन, सुरानंद, नागबोधि, यशोधन, नित्यनाथ, गोविंद, अनंतदेव एवं वाग्भट्ट आदि महान वैद्य हुए जिन्होनें आयुर्वेद के क्षेत्र में विभिन्न नये एवं सफल प्रयोग किये. इस काल में आयुर्वेद ने प्रगति का चरम देखा. इसी कारण बौद्ध काल को आयुर्वेद का स्वर्णयुग भी माना जाता रहा है.
समय के आधुनिकीकरण के साथ आयुर्वेद का प्रयोग भले ही कम हुआ किंतु भारत ने अपनी इस विद्या को मिटने नहीं दिया. और आज एक बार पुन: आयुर्वेद पश्चिमी चिकित्सा शैली को चुनौती दे रहा है. वस्तुत: उद्देश्य किसी एक विद्या का आधिपत्य स्थापित करना नहीं है, उद्देश्य है विश्व में आरोग्य की स्थापना, साधारण जन मानस के लिये असाध्य रोगों की भी सुलभ और अल्पव्ययी चिकित्सा पद्धिति उपलब्ध कराना.
कहते हैं कि यह विज्ञान स्वयं सृष्टि के जनक भगवान ब्रह्मा द्वारा रचा गया था. बाद में यह विद्या उन्होंने दक्ष प्रजापति को सिखायी और दक्ष प्रजापति से यह देवों के वैद्य अश्विनीकुमारों बंधुओं के पास गयी. तदोपरांत अश्विनीकुमारों ने इस विद्या को देवराज इंद्र के समक्ष प्रस्तुत किया. तीन महान चिकित्सक – आचार्य भारद्वाज, आचार्य कश्यप तथा आचार्य दिवोदास धन्वंतरि (चिकित्सा पद्धिति के देव), स्वयं देवराज इंद्र के शिष्य थे. इनमें से आचार्य भारद्वाज के एक कुशाग्र शिष्य हुए आचार्य अग्निवेश. सर्वप्रथम इन्होनें ही आयुर्वेद के मुख्य लिखित रूप की रचना की, जिसे आगे चल कर इनके शिष्य आचार्य चरक ने संशोधित कर पुन: प्रस्तुत किया. इस संशोधित संस्करण को आज ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना जाता है. इसके अतिरिक्त आचार्य कश्यप ने बाल चिकित्सा के ऊपर एक ग्रन्थ लिखा जो आज आंशिक रूप में ‘कश्यप संहिता’ के नाम से उपलब्ध है.
आचार्य धन्वंतरि के शिष्य हुये आचार्य सुश्रुत, जिन्होनें गुरू से पृथक होने के पश्चात ‘सुश्रुत संहिता’ की रचना की जिसे शल्य चिकित्सा, नेत्र-नासिका-कंठ चिकित्सा तथा नेत्र-विज्ञान का महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है. ‘चरक संहिता’, ‘सुश्रुत संहिता’ तथा ‘वाग्भट्ट’ द्वारा लिखित ‘अष्टांग हृदयम’, इन तीनों प्राचीन पुस्तकों को सम्मिलित रूप से ‘बृहत्-त्रयी’ के नाम से जाना जाता है और यह वर्तमान में आयुर्वेदिक विद्या का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकलन है.
इसी प्रकार विभिन्न रोगों की पहचान, विभिन्न जड़ी-बूटियों, खनिजों, क्वाथ, चूर्ण, आसव, अरिष्ट इत्यादि के संविन्यास से जुड़ी सभी जानकारियाँ क्रमश: ‘माधव निदान’, ‘भव प्रकाश निघन्तु’ और ‘श्रृंगधर संहिता’ में मिलती हैं जिन्हें संयुक्त रूप से ‘लघु्त्-त्रयी’ के नाम से जाना जाता है.
माना जाता है कि वैदिक काल से अब तक आयुर्वेद के क्षेत्र में निरंतर विकास हुआ है. बौद्ध काल में नागार्जुन, सुरानंद, नागबोधि, यशोधन, नित्यनाथ, गोविंद, अनंतदेव एवं वाग्भट्ट आदि महान वैद्य हुए जिन्होनें आयुर्वेद के क्षेत्र में विभिन्न नये एवं सफल प्रयोग किये. इस काल में आयुर्वेद ने प्रगति का चरम देखा. इसी कारण बौद्ध काल को आयुर्वेद का स्वर्णयुग भी माना जाता रहा है.
समय के आधुनिकीकरण के साथ आयुर्वेद का प्रयोग भले ही कम हुआ किंतु भारत ने अपनी इस विद्या को मिटने नहीं दिया. और आज एक बार पुन: आयुर्वेद पश्चिमी चिकित्सा शैली को चुनौती दे रहा है. वस्तुत: उद्देश्य किसी एक विद्या का आधिपत्य स्थापित करना नहीं है, उद्देश्य है विश्व में आरोग्य की स्थापना, साधारण जन मानस के लिये असाध्य रोगों की भी सुलभ और अल्पव्ययी चिकित्सा पद्धिति उपलब्ध कराना.
चमत्कारी त्रिफला
त्रिफला से कायाकल्प
त्रिफला तीन श्रेष्ठ औषधियों हरड, बहेडा व आंवला के पिसे मिश्रण से बने चूर्ण को कहते है।जो की मानव-जाति को हमारी प्रकृति का एक अनमोल उपहार हैत्रिफला सर्व रोगनाशक रोग प्रतिरोधक और आरोग्य प्रदान करने वाली औषधि है। त्रिफला से कायाकल्प होता है त्रिफला एक श्रेष्ठ रसायन, एन्टिबायोटिक वऐन्टिसेप्टिक है इसे आयुर्वेद का पेन्सिलिन भी कहा जाता है। त्रिफला का प्रयोग शरीर में वात पित्त और कफ़ का संतुलन बनाए रखता है। यह रोज़मर्रा की आम बीमारियों के लिए बहुत प्रभावकारी औषधि है सिर के रोग, चर्म रोग, रक्त दोष, मूत्र रोग तथा पाचन संस्थान में तो यह रामबाण है। नेत्र ज्योति वर्धक, मल-शोधक,जठराग्नि-प्रदीपक, बुद्धि को कुशाग्र करने वाला व शरीर का शोधन करने वाला एक उच्च कोटि का रसायन है। आयुर्वेद की प्रसिद्ध औषधि त्रिफला पर भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर, ट्राम्बे,गुरू नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च करनें के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला गया कि त्रिफला कैंसर के सेलों को बढ़नें से रोकता है।हरड *
हरड को बहेड़ा का पर्याय माना गया है। हरड में लवण के अलावा पाँच रसों का समावेश होता है। हरड बुद्धि को बढाने वाली और हृदय को मजबूती देने वाली,पीलिया ,शोध ,मूत्राघात,दस्त, उलटी, कब्ज, संग्रहणी, प्रमेह, कामला, सिर और पेट के रोग, कर्णरोग, खांसी, प्लीहा, अर्श, वर्ण, शूल आदि का नाश करने वाली सिद्ध होती है। यह पेट में जाकर माँ की तरह से देख भाल और रक्षा करती है। भूनी हुई हरड के सेवन से पाचन तन्त्र मजबूत होता है। हरड को चबाकर खाने से अग्नि बढाती है। पीसकर सेवन करने से मल को बाहर निकालती है। जल में पका कर उपयोग से दस्त, नमक के साथ कफ, शक्कर के साथ पित्त, घी के साथ सेवन करने से वायु रोग नष्ट हो जाता है। हरड को वर्षा के दिनों में सेंधा नमक के साथ, सर्दी में बूरा के साथ, हेमंत में सौंठ के साथ, शिशिर में पीपल, बसंत में शहद और ग्रीष्म में गुड के साथ हरड का प्रयोग करना हितकारी होता है। भूनी हुई हरड के सेवन से पाचन तन्त्र मजबूत होता है। 200 ग्राम हरड पाउडर में 10-15 ग्राम सेंधा नमक मिलाकर रखे। पेट की गड़बडी लगे तो शाम को 5-6 ग्राम फांक लें । गैस, कब्ज़, शरीर टूटना, वायु-आम के सम्बन्ध से बनी बीमारियों में आराम होगा ।त्रिफला बनाने के लिए तीन मुख्य घटक हरड, बहेड़ा व आंवला है इसे बनाने में अनुपात को लेकर अलग अलग ओषधि विशेषज्ञों की अलग अलग राय पाई गयी है
बहेडा **
बहेडा वात,और कफ को शांत करता है। इसकी छाल प्रयोग में लायी जाती है। यह खाने में गरम है,लगाने में ठण्डा व रूखा है, सर्दी,प्यास,वात , खांसी व कफ को शांत करता है यह रक्त, रस, मांस ,केश, नेत्र-ज्योति और धातु वर्धक है। बहेडा मन्दाग्नि ,प्यास, वमन कृमी रोग नेत्र दोष और स्वर दोष को दूर करता है बहेडा न मिले तो छोटी हरड का प्रयोग करते हैआंवला ***
आंवला मधुर शीतल तथा रूखा है वात पित्त और कफ रोग को दूर करता है। इसलिए इसे त्रिदोषक भी कहा जाता है आंवला के अनगिनत फायदे हैं। नियमित आंवला खाते रहने से वृद्धावस्था जल्दी से नहीं आती।आंवले में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है,इसका विटामिन किसी सी रूप (कच्चा उबला या सुखा) में नष्ट नहीं होता, बल्कि सूखे आंवले में ताजे आंवले से ज्यादा विटामिन सी होता है। अम्लता का गुण होने के कारण इसे आँवला कहा गया है। चर्बी, पसीना, कपफ, गीलापन और पित्तरोग आदि को नष्ट कर देता है। खट्टी चीजों के सेवन से पित्त बढता है लेकिन आँवला और अनार पित्तनाशक है। आँवला रसायन अग्निवर्धक, रेचक, बुद्धिवर्धक, हृदय को बल देने वाला नेत्र ज्योति को बढाने वाला होता है।कुछ विशेषज्ञों कि राय है की ———
- तीनो घटक (यानी के हरड, बहेड़ा व आंवला) सामान अनुपात में होने चाहिए।
- कुछ विशेषज्ञों कि राय है की यह अनुपात एक, दो तीन का होना चाहिए ।
- कुछ विशेषज्ञों कि राय में यह अनुपात एक, दो चार का होना उत्तम है
- और कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यह अनुपात बीमारी की गंभीरता के अनुसार अलग-अलग मात्रा में होना चाहिए ।एक आम स्वस्थ व्यक्ति के लिए यह अनुपात एक, दो और तीन (हरड, बहेडा व आंवला) संतुलित और ज्यादा सुरक्षित है। जिसे सालों साल सुबह या शाम एक एक चम्मच पानी या दूध के साथ लिया जा सकता है। सुबह के वक्त त्रिफला लेना पोषक होता है जबकि शाम को यह रेचक (पेट साफ़ करने वाला) होता है।
1.शिशिर ऋतू में ( 14 जनवरी से 13 मार्च) 5 ग्राम त्रिफला को आठवां भाग छोटी पीपल का चूर्ण मिलाकर सेवन करें।
2.बसंत ऋतू में (14 मार्च से 13 मई) 5 ग्राम त्रिफला को बराबर का शहद मिलाकर सेवन करें।
3.ग्रीष्म ऋतू में (14 मई से 13 जुलाई ) 5 ग्राम त्रिफला को चोथा भाग गुड़ मिलाकर सेवन करें।
4.वर्षा ऋतू में (14 जुलाई से 13 सितम्बर) 5 ग्राम त्रिफला को छठा भाग सैंधा नमक मिलाकर सेवन करें।
5.शरद ऋतू में(14 सितम्बर से 13 नवम्बर) 5 ग्राम त्रिफला को चोथा भाग देशी खांड/शक्कर मिलाकर सेवन करें।
6.हेमंत ऋतू में (14 नवम्बर से 13 जनवरी) 5 ग्राम त्रिफला को छठा भाग सौंठ का चूर्ण मिलाकर सेवन करें।
ओषधि के रूप में त्रिफला
- रात को सोते वक्त 5 ग्राम (एक चम्मच भर) त्रिफला चुर्ण हल्के गर्म दूध अथवा गर्म पानी के साथ लेने से कब्ज दूर होता है।
- अथवा त्रिफला व ईसबगोल की भूसी दो चम्मच मिलाकर शाम को गुनगुने पानी से लें इससे कब्ज दूर होता है।
- इसके सेवन से नेत्रज्योति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है।
- सुबह पानी में 5 ग्राम त्रिफला चूर्ण साफ़ मिट्टी के बर्तन में भिगो कर रख दें, शाम को छानकर पी ले। शाम को उसी त्रिफला चूर्ण में पानी मिलाकर रखें, इसे सुबह पी लें। इस पानी से आँखें भी धो ले। मुँह के छाले व आँखों की जलन कुछ ही समय में ठीक हो जायेंगे।
- शाम को एक गिलास पानी में एक चम्मच त्रिफला भिगो दे सुबह मसल कर नितार कर इस जल से आँखों को धोने से नेत्रों की ज्योति बढती है।
- एक चम्मच बारीख त्रिफला चूर्ण, गाय का घी10 ग्राम व शहद 5 ग्राम एक साथ मिलाकर नियमित सेवन करने से आँखों का मोतियाबिंद, काँचबिंदु, द्रष्टि दोष आदि नेत्ररोग दूर होते है। और बुढ़ापे तक आँखों की रोशनी अचल रहती है।
- त्रिफला के चूर्ण को गौमूत्र के साथ लेने से अफारा, उदर शूल, प्लीहा वृद्धि आदि अनेकों तरह के पेट के रोग दूर हो जाते है।
- त्रिफला शरीर के आंतरिक अंगों की देखभाल कर सकता है, त्रिफला की तीनों जड़ीबूटियां आंतरिक सफाई को बढ़ावा देती हैं।
- चर्मरोगों में (दाद, खाज, खुजली, फोड़े-फुंसी आदि) सुबह-शाम 6 से 8 ग्राम त्रिफला चूर्ण लेना चाहिए।
- एक चम्मच त्रिफला को एक गिलास ताजा पानी मे दो- तीन घंटे के लिए भिगो दे, इस पानी को घूंट भर मुंह में थोड़ी देर के लिए डाल कर अच्छे से कई बार घुमाये और इसे निकाल दे। कभी कभार त्रिफला चूर्ण से मंजन भी करें इससे मुँह आने की बीमारी, मुहं के छाले ठीक होंगे, अरूचि मिटेगी और मुख की दुर्गन्ध भी दूर होगी ।
- त्रिफला, हल्दी, चिरायता, नीम के भीतर की छाल और गिलोय इन सबको मिला कर मिश्रण को आधा किलो पानी में जब तक पकाएँ कि पानी आधा रह जाए और इसे छानकर कुछ दिन तक सुबह शाम गुड या शक्कर के साथ सेवन करने से सिर दर्द कि समस्या दूर हो जाती है।
- त्रिफला एंटिसेप्टिक की तरह से भी काम करता है। इस का काढा बनाकर घाव धोने से घाव जल्दी भर जाते है।
- त्रिफला पाचन और भूख को बढ़ाने वाला और लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि करने वाला है।
- मोटापा कम करने के लिए त्रिफला के गुनगुने काढ़े में शहद मिलाकर ले।त्रिफला चूर्ण पानी में उबालकर, शहद मिलाकर पीने से चरबी कम होती है।
- त्रिफला का सेवन मूत्र-संबंधी सभी विकारों व मधुमेह में बहुत लाभकारी है। प्रमेह आदि में शहद के साथ त्रिफला लेने से अत्यंत लाभ होता है।
- त्रिफला की राख शहद में मिलाकर गरमी से हुए त्वचा के चकतों पर लगाने से राहत मिलती है।
- 5 ग्राम त्रिफला पानी के साथ लेने से जीर्ण ज्वर के रोग ठीक होते है।
- 5 ग्राम त्रिफला चूर्ण गोमूत्र या शहद के साथ एक माह तक लेने से कामला रोग मिट जाता है।
- टॉन्सिल्स के रोगी त्रिफला के पानी से बार-बार गरारे करवायें।
- त्रिफला दुर्बलता का नास करता है और स्मृति को बढाता है। दुर्बलता का नास करने के लिए हरड़, बहेडा, आँवला, घी और शक्कर मिला कर खाना चाहिए।
- त्रिफला, तिल का तेल और शहद समान मात्रा में मिलाकर इस मिश्रण कि 10 ग्राम मात्रा हर रोज गुनगुने पानी के साथ लेने से पेट, मासिक धर्म और दमे की तकलीफे दूर होती है इसे महीने भर लेने से शरीर का सुद्धिकरन हो जाता है और यदि 3 महीने तक नियमित सेवन करने से चेहरे पर कांती आ जाती है।
- त्रिफला, शहद और घृतकुमारी तीनो को मिला कर जो रसायन बनता है वह सप्त धातु पोषक होता है। त्रिफला रसायन कल्प त्रिदोषनाशक, इंद्रिय बलवर्धक विशेषकर नेत्रों के लिए हितकर, वृद्धावस्था को रोकने वाला व मेधाशक्ति बढ़ाने वाला है। दृष्टि दोष, रतौंधी (रात को दिखाई न देना), मोतियाबिंद, काँचबिंदु आदि नेत्ररोगों से रक्षा होती है और बाल काले, घने व मजबूत हो जाते हैं।
- डेढ़ माह तक इस रसायन का सेवन करने से स्मृति, बुद्धि, बल व वीर्य में वृद्धि होती है।
- दो माह तक सेवन करने से चश्मा भी उतर जाता है।
- विधिः 500 ग्राम त्रिफला चूर्ण, 500 ग्राम देसी गाय का घी व 250 ग्राम शुद्ध शहद मिलाकर शरदपूर्णिमा की रात को चाँदी के पात्र में पतले सफेद वस्त्र से ढँक कर रात भर चाँदनी में रखें। दूसरे दिन सुबह इस मिश्रण को काँच अथवा चीनी के पात्र में भर लें।
- सेवन-विधिः बड़े व्यक्ति10 ग्राम छोटे बच्चे 5 ग्राम मिश्रण सुबह-शाम गुनगुने पानी के साथ लें दिन में केवल एक बार सात्त्विक, सुपाच्य भोजन करें। इन दिनों में भोजन में सेंधा नमक का ही उपयोग करे। सुबह शाम गाय का दूध ले सकते हैं।सुपाच्य भोजन दूध दलिया लेना उत्तम है.
- मात्राः 4 से 5 ग्राम तक त्रिफला चूर्ण सुबह के वक्त लेना पोषक होता है जबकि शाम को यह रेचक (पेट साफ़ करने वाला) होता है। सुबह खाली पेट गुनगुने पानी के साथ इसका सेवन करें तथा एक घंटे बाद तक पानी के अलावा कुछ ना खाएं और इस नियम का पालन कठोरता से करें ।
- सावधानीः दूध व त्रिफला के सेवन के बीच में दो ढाई घंटे का अंतर हो और कमजोर व्यक्ति तथा गर्भवती स्त्री को बुखार में त्रिफला नहीं खाना चाहिए।
- घी और शहद कभी भी सामान मात्रा में नहीं लेना चाहिए यह खतरनाक जहर होता है ।
- त्रिफला चूर्णके सेवन के एक घंटे बाद तक चाय-दूध कोफ़ी आदि कुछ भी नहीं लेना चाहिये।
- त्रिफला चूर्ण हमेशा ताजा खरीद कर घर पर ही सीमित मात्रा में (जो लगभग तीन चार माह में समाप्त हो जाये ) पीसकर तैयार करें व सीलन से बचा कर रखे और इसका सेवन कर पुनः नया चूर्ण बना लें।
त्रिफला से कायाकल्प
कायाकल्प हेतु निम्बू लहसुन ,भिलावा,अदरक आदि भी है। लेकिन त्रिफला चूर्ण जितना निरापद और बढ़िया दूसरा कुछ नहीं है।आयुर्वेद के अनुसार त्रिफला के नियमित सेवन करने से कायाकल्प हो जाता है। मनुष्य अपने शरीर का कायाकल्प कर सालों साल तक निरोग रह सकता है, देखे कैसे ?
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एक वर्ष तक नियमित सेवन करने से शरीर चुस्त होता है।
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दो वर्ष तक नियमित सेवन करने से शरीर निरोगी हो जाता हैं।
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तीन वर्ष तक नियमित सेवन करने से नेत्र-ज्योति बढ जाती है।
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चार वर्ष तक नियमित सेवन करने से त्वचा कोमल व सुंदर हो जाती है ।
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पांच वर्ष तक नियमित सेवन करने से बुद्धि का विकास होकर कुशाग्र हो जाती है।
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छः वर्ष तक नियमित सेवन करने से शरीर शक्ति में पर्याप्त वृद्धि होती है।
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सात वर्ष तक नियमित सेवन करने से बाल फिर से सफ़ेद से काले हो जाते हैं।
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आठ वर्ष तक नियमित सेवन करने से वृद्धाव्स्था से पुन: योवन लोट आता है।
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नौ वर्ष तक नियमित सेवन करने से नेत्र-ज्योति कुशाग्र हो जाती है और सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु भी आसानी से दिखाई देने लगती हैं।
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दस वर्ष तक नियमित सेवन करने से वाणी मधुर हो जाती है यानी गले में सरस्वती का वास हो जाता है।
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ग्यारह वर्ष तक नियमित सेवन करने से वचन सिद्धि प्राप्त हो जाती है अर्थात व्यक्ति जो भी बोले सत्य हो जाती है।
हरड - आयुर्वेद में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान
हरड का महत्त्व
एक हरड का नित्य सेवन लम्बी आयु देता है,कहा भी गया है क़ी' माँ कभी नाराज हो सकती है परन्तु हरड नहीं।
दो बड़ी हरड (या 3 से 4 ग्राम हरड चूर्ण) को घी में भूनकर नियमित सेवन करने से व घी पीने से शरीर में बल चिरस्थायी होता है ।
- हरड का प्रमुख कार्य है तत्वों को हटा कर हर एक अंग के दोषों को निकाल कर उन्हें शोधित कर उनकी गतिशीलता को बढ़ाना है।
- यह दस्त से पेट के शोधन के बाद दस्त रोकती है।
- हरड दांतों से चबाकर खाने से भूख बढती है।
- हरद भुन कर खाने से तीनो दोषों को ठीक करती है।
- हरड पीस कर खाने से रेचक होती है।
- भोजन के साथ खाने से बुद्धि और बल बढ़ाती है।
- के बाद खाने से अन्न और जल के दोष दूर करती है।
- अधिक पसीना आना , पुरानी सर्दी खांसी , पुराने घाव भरने में लाभकारी।
- मुहासों पर इसे घिसकर कर लगाने से लाभ होता है।
- हरड का मुरब्बा दस्त बंद कर भूख बढ़ता है।
ऋतू अनुसार हरड सेवन-विधि :
निम्न द्रव्य दिये गये अनुपात में मिलाकर प्रात: हरीतकी (हरड) का निरंतर सेवन करने से श्रेष्ठ रसायन के रूप में सभी प्रकार के रोगों से रक्षा करती है और धातुओं को पुष्ट करती है । पेट, आँख, अच्छी नींद, तनाव मुक्ति, जोड़ों के दर्द, मोटापे आदि के लिये इसे उपयोगी पाया गया है, पर पारम्परिक चिकित्सक इसे पूरे शरीर को मजबूत करने वाला उपाय मानते है।
- एक फल ले और उसे रात भर एक कटोरी पानी मे भिगो दे। सुबह खाली पेट पानी पीयेँ और फल को फैंक दें। यह सरल सा दिखने वाला प्रयोग बहुत प्रभावी है। यह ताउम्र रोगो से बचाता है। वैसे विदेशो मे किये गये अनुसन्धान हर्रा के बुढापा रोकने की क्षमता को पहले ही साबित कर चुके हैं। यह प्रयोग लगातार 3 महीने ही करें . 3 महीने के बाद 15 दिनों का अवकाश ले फिर इस प्रयोग को शुरू कर दें.
शिशिर
हरड + पीपर (8 भाग : 1 भाग)वसंत
हरड + शहद (समभाग)
ग्रीष्म
हरड + गुड ( समभाग)
वर्षा
हरड + सैंधव (8 भाग : 1 भाग)
शरद
हरड + मिश्री (2 भाग : 1 भाग)
हेमंत
हरड + सौंठ (4 भाग : 1 भाग)
धनिया- घर-घर में पाया जाने वाला औषधीय पौधा
धनिया
अधिकतर घरों में तो रोजाना हरे धनिया का इस्तेमाल होता है। धनिये के सभी भाग खाद्य साम्रगी के लिए उपयुक्त रहे हैं, लेकिन ताज़ा धनिये के पत्ते और सूखे बीजों का सबसे अधिक खाना पकाने में इस्तेमाल किया जाता है। धनिया भारतीय रसोई में प्रयोग किए जाने वाली सुंगंधित हरी पत्तीयाँ हैं।आयुर्वेद के अनुसार इसके उपयोग से शरीर को बहुत फायदे होते हैं जो निम्न हैं:
- हरा धनिया वातनाशक होने के साथ-साथ पाचनशक्ति भी बढ़ाता है। हरे धनिया के साथ ख़ास-तौर पर पुदीना मिलाकर इसकी चटनी बनाई जाती है। जो हमारे शरीर को आराम देती है। इसको खाने से नींद भी अच्छी आती है। शुद्ध शाकाहार में हरे धनिए का उपयोग बहुतायत में किया जाता है। ताज़ा हरा धनिया व हरी मिर्च की चटनी बहुत प्रसिद्ध है। इसका उपयोग मेहमान नवाजी में ख़ासतौर पर किया जाता है। गुजराती लोग ख़ासतौर पर हरे धनिए के साथ लहसुन और गुड़ मिलाकर इस चटनी का उपयोग करते हैं। गर्मी के दिनों में ख़ास कर हरा धनिया और कैरी का उपयोग कर चटनी बनाई जाती है। जो दाल-बाटी या सादे भोजन के साथ भी बनाई जाती है। घर पर पानीपूरी बनाने-खाने वाले लोगभी हरा धनिया और कैरी का उपयोग कर घर में ही मसाले वाला पानी तैयार करते हैं, जो बहुत स्वादिष्ट होने के साथ-साथ पाचनशक्ति को ठीक करने का काम करता है। हरे धनिए का दही के रायते में भी भरपूर उपयोग किया जाता है।
- मुँह के छालों या गले के रोगों में हरे धनिया के रस से कुल्ला करना चाहिए।
- आँखों की सूजन व लाली में धनिया को कूटकर पानी में उबाल कर, उस पानी को कपड़े से छानकर
आँखों में टपकाने से दर्द कम होता है।
- धनिया पत्ती का रस नकसीर फूटने पर नाक में टपकाने से खून आना बंद हो जाता है
- दस्त लगने पर फ्रेश बटर मिल्क में एक या दो चम्मच ताजे धनिए का रस मिलाकर पीएं।
- डायरिया के उपचार में सूखा धनिया कारगर है।
- धनिया महिलाओं में मैन्स्ट्युअल संबंधी समस्याओं को दूर करता है। इस दौरान यदि मैन्स्ट्युअल फ्लो ज्यादा हो तो आधा लीटर पानी में लगभग छह ग्राम धनिए के बीज डालकर खौलाएं और इसमें शक्कर डालकर पीएं, फायदा होगा।
- गठिए की समस्या हो तो पानी में धनिए का बीज डालकर काढ़ा बनाकर पीएं।
- धनिए को एंटी डायबिटीक प्लांट भी कहा जाता है। इसके सेवन से ब्लड में इंसुलिन की मात्रा नियंत्रित रहती है। इसके साथ ही यह शरीर में बैड कोलेस्ट्रोल की मात्रा को भी कम करता है.
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