धर्म मानव जीवन का
प्रमुख आधार स्तम्भ है और धर्म का प्रमुख अंग है उपवास. ‘उप’ माने समीप और ‘वास’
माने रहना. उपवास माने ईश्वर सा समीप रहना. या कह सकते हैं कि अपने समीप रहना.
उपवास में ध्यान नहीं भटकता तथा आत्मकेंद्रित रहता है. पर यह तभी संभव है जब स्वाददेंद्री
पर नियंत्रण हो. बिना संयम के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य संभव नहीं.
अपक्व आहार रस ही
सभी रोगों का मूल है. मतलब बिना पचा भोजन. इस समस्या का सबसे बड़ा समाधान है उपवास.
आयुर्वेद के अनुसार-
‘लंघनम परम औषधं.’
‘लंघन (उपवास) सर्वश्रेष्ठ औषधि है.’
आयुर्वेद के
सर्वेश्रेष्ठ आचार्य श्री वाग्भटजी कहते हैं-
‘लंघनै: क्षपिते दोषे दीपते..नि लाघवे सति.
स्वास्थ्यं क्षुतृडरूचि: पक्तिर्बलमोजश्च जायते..
‘लंघन से प्रकुपित
दोष नष्ट हो जाते हैं. जठराग्नि प्रदीप्त होती है. शरीर हल्का हो जाता है. भूख व्
प्यास उत्पन्न होकर आहार का सम्यक पाचन होने लगता है तथा स्वास्थ्य, बल व् ओज में
वृद्धि होती है.’ (वाग्भट्ट, चि. : 1.23)
कहावत भी है-
अर्द्धरोगहारी निद्रा. सर्व रोगहारी क्षुधा.
आधा रोग नींद लेने से ही ठीक हो जाता है व क्षुधा से
उपवास रखने से सम्पूर्ण रोग का नाश होता है.
उपवास से शारीर का
कर्षण होता है अर्थात शारीर को भरी व सुस्त बनाने वाले पृथ्वी तथा जलीय तत्त्वों
का ह्रास होकर लघु (हलके) गुण वाले आकाश, वायु व अग्नि तत्वों की वृद्धि होती है.
इससे शारीर तथा मन में भी हल्कापन व सात्विकता आती है. सभी प्रकार के धार्मिक
अनुष्ठानो में उपवास का विशेष स्थान है.
आधुनिक चिकित्सा
विज्ञान के अनुसार शरीर की समस्त क्रियाएं चाहे वे स्वैच्छिक (चलना, उठना, बैठना
आदि) हों या अनैच्छिक (श्वसन, ह्रदय स्पंदन आदि) सभी में ऑक्सीजन तथा कार्बन का
संयोग होकर दहन (ओक्सिडाईजेशन) होता है. यह ऑक्सीजन श्वास द्वारा प्राप्त होती है
व कार्बन आहार के सम्यक पाचन से उत्पन्न रस धातु में स्थित शर्करा से प्राप्त होता
है, आहार न मिलने पर शरीर इन क्रियाओं के लिए आवश्यक कार्बन संचित मेद तथा आम
(रोगजन्य विष द्रव्य) से ले लेता है, जिससे अनावश्यक चर्बी, कोलेस्ट्रोल तथा विषैले
तत्वो का नाश हो जाता है. यह स्तिथि रोगों की निवृत्ति के लिए अत्यंत आवश्यक व
लाभदायी है. आधुनिक दवाइयां जहाँ इन रोगजन्य विष द्रव्यों को शरीर में ही दबाकर
रोग को अधिक गंभीर बनती हैं, वही उपवास इन्हें जलाकर रोग का समूल नाश करता है.
(यदि रोग का कारन आम नहीं है तो उपवास करने से रोग बढेगा. जैसे कि मलेरिया,
टाईफाईड, टीबी आदि संक्रामक रोगीं में बुखार एक लक्षण के रूप में प्रकट होगा.
इनमें उपवास नहीं करना चाहिए.)
वर्षा ऋतू में उपवास
की आवश्यकता.
वर्षा ऋतू में आकाश
प्राय: मेघच्छिद रहता है, जिससे सूर्य की जीवनदायी किरणे धरती पर कम ही मात्र में
पहुँचती हैं. वातावरण, आहार द्रव्यों, वनस्पतियों तथा प्राणियों में नमी की वृद्धि
होती है. जलीय अंश की अधिकता व वर्षा का दूषित जल जठराग्नि को मंद कर विभिन्न
व्याधियों को उत्पन्न करते हैं. अतः इन दिनों में व्रत-उपवासों की विशेष आवश्यकता है.
एकादशी व्रत का
महत्व
कृष्ण पक्ष की
द्वादशी से लेकर शुक्ल पक्ष की तृतीय तथा शुक्ल पक्ष की द्वादशी से लेकर कृष्ण
पक्ष की तृतीय तक के इन सात-सात दिनों में चन्द्र शक्ति का प्रभाव विशेष रहता है,
जिससे शरीर तथा मन प्रभावित हो जाते हैं. चंद्रशक्ति के प्रभाव के कारण ही
पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन समुद्र में ज्वार-भाटा आता है. इस काल में वातावरण
तथा प्राणियों के शरीरों में भी जलीय अंश की वृद्धि होती है. यह जल जठराग्नि को
मंद कर अपने सामान गुण वाले काफ को बढाकर कफजन्य व्याधियों को उत्पन्न करता है.
अगर शरीर में पहले से ही कोई बीमारी हो, तो वह इन दिनों में और गंभीर हो जाती है.
श्वास (दमा), शोथ (सूजन), जलोदर जैसे कफ प्रधान रोगों से ग्रस्त रुग्णों की मृत्यु
इन दिनों में अधिक होती है.
इस प्रकोप से समाज
की रक्षा करने हेतु अपने दूरदर्शी ऋषि मुनियों ने एकादशी व्रत रखने का निर्देश
दिया है. इस दिन निराहार रहने से पृथ्वी तथा जल तत्व का ह्रास होकर अग्नि तत्व की
वृद्धि होती है, जो रोगों का समूल नाश करने के लिए आवश्यक है. वर्षा ऋतू आरंभ होने
से पूर्व निर्जला एकादशी के पीछे भी यही कारण है. एकादशी के दिन पूर्णतः निराहार
रहकर दूसरे दिन सुबह भुने चनों का सेवन किया जाता है, ताकि शेष अतिरिक्त जलीय अंश
एवं कफ दोष का शमन हो जाये.
अगर इन शास्त्र-निर्दिष्ट
नियमो का पालन किया जाय, तो शायद ही कोई बीमार पड़े. इसी कारण सभी उपवासों एकादशी
का स्थान माला में मेरुमणि के सामान है. एकादशी, पूर्णिमा, अमावश्य के दिन उपवास,
जप, पूजा-पाठ, संत दर्शन आदि का जो विधान है, उसके पीछे शारीरिक तथा मानसिक
स्वास्थ्य की रक्षा प्रधान कारन है.
सप्ताह के विभिन्न
दिनों से उपवास का सम्बन्ध
सोमवार तथा गुरुवार
के दिन प्राय: शीत गुण की प्रधानता होने
के कारण काफ में वृद्धि व जठराग्नि मंद हो जाती
है. अतः इन दिनों में सम्पूर्ण उपवास या दिन में एक बार अल्प मात्र में
सुपाच्य आहार लेने का विधान है. मंगलवार तथा रविवार के दिन उष्ण गुण की प्रधानता
और शनिवार वात प्रधान होने से इन दिनों में उपवास रखना कठिन हो जाता है.
उपवास का सामान्य
अर्थ है निराहार रहना. इन दिनों में आलू, शकरकंद, मूंगफली, राजगीर, सिंघारा, केला,
सूखा मेवा आदि का सेवन उपवास के सिद्धांतो के विरुद्ध है. ये पदार्थ प्राय: मलावरोध
करने वाले व पचने में भारी होने से लाभ के बजाय हानि ही करते हैं. ख़ास तौर पर
एकादशी जैसे स्वास्थ्य प्रदाता व्रत के लिए इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए.
सावधानी: बालक, गर्भिणी स्त्री तथा
अति दुर्बल लोगों को अधिक उपवास या भुखमरी नहीं करनी चाहिए. किशमिश, अंगूर, सेब
इनके लिए ज्यादा हितकारी हैं.
No comments:
Post a Comment